Watch: भारत से सारे मुसलमान ग़ायब!




मौजूदा हालात पर क़रारा कटाक्ष है सईद नक़वी की क़िताब ‘The Muslim Vanishes’, क्या होगा अगर पता चले कि एक दिन देश के सारे मुसलमान अचानक कहीं चले गए?,‘साम्प्रदायिकता को सियासी सरपरस्ती लेकिन जाति व्यवस्था युगों से चली आ रही सामाजिक आदत’



नई दिल्ली ( 29 अप्रैल)।

अंग्रेज़ी में ‘द मुस्लिम वैनिशेस’ और हिन्दी में ‘कहां गए मुसलमान?’ यही है उस किताब का टाइटल जिसे जाने माने ऑथर और पत्रकार सईद नकवी ने नाटक यानि प्ले के अंदाज़ में लिखा है. 

                                              


ये किताब ऐसे वक्त पर आई है जब मुस्लिम समुदाय का वो डर और असुरक्षा बोध चर्चा में है जो कि वो समझते हैं कि उन्हें हाशिए पर ले जाने की कथित कोशिशों के चलते हो रहा है. सईद नक़वी की यह किताब जनवरी 2022 में पेंगुइन, रैंडम हाउस, इंडिया की ओर से पब्लिश हुई है और इस वक्त अमेजॉन पर टॉप बेस्टसेलर्स में से एक है. नक़वी के मुताबिक इस किताब पर आगे चलकर फिल्म, स्टेज पर मंचन या वेबसीरीज़ जैसा भी कुछ हो सकता है, जिसके लिए बातचीत शुरूआती दौर में है. 

सईद नक़वी (फाइल)


सईद नक़वी का प्ले डायस्टोपियन  थॉट एक्सपेरिमेंट हैं जिसमें कल्पना की गई है कि क्या हो अगर एक दिन ये सच हो जाए कि भारत के सभी मुसलमान भारत की सोशल इकोनॉमिक लाइफ से गायब हो जाएं, या खुद को इनविज़िबल बना लें या खुद को सब ऑर्डिनेट कर लें.  प्ले की शुरुआत एक काल्पनिक इनसाइट टुडे टीवी न्यूज़ चैनल से होती है जहां एक पत्रकार अपने बॉस से कहता है- "मैं नहीं जानता कि कैसे समझाऊं...ये बस...इतना अविश्वसनीय है, सर कोई नहीं है...मेरा मतलब मुसलमानों से हैं. सब मुस्लिम चले गए हैं. कुछ लोगों का कहना है कि वो कुतुब मीनार को भी साथ ले गए हैं."


ग्राफिक्स साभार TOI


सईद नक़वी ने सोच-समझ कर अपने इस प्ले के किरदारों को रीयल लाइफ टीवी एंकर्स, स्टार रिपोर्टर्स, मीडिया मालिकों पर गढ़ा है. प्ले में चुटीले संवादों की बानगी देखिए जैसे एक किरदार प्ले में पूछता है कि क्या नए भारत में मुगलई शब्द को बर्दाश्त किया जा सकेगा? क्या भविष्य में त्रिवेणी कबाब सर्व होंगे? बॉलीवुड के उन गानों का क्या होगा, जहां उर्दू शब्दों की भरमार है? और क्या दिल्ली का लोधी गार्ड्न्स अब कमल उपवन के नाम से जाना जाएगा. 

'द मुस्लिम वैनिशेस' में सईद नक़वी की लेखनी का गज़ब फ्लो देखने को मिलता है. बीच बीच में किस्से, दंतकथाओं का तड़का सईद नक़वी के पत्रकारिता के लंबे तजर्बे और नॉलेज का गवाह है. जैसे कि लखनऊ के अमीनाबाद में मौजूद पडाइन या पंडिताइन की मस्जिद का ज़िक्र. 

पडाइन की मस्जिद, अमीनाबाद, लखनऊ


पडाइन मस्जिद को 18वीं सदी में ब्राह्मण महिला रानी जय कुंवर पांडे ने लखनऊ के गरीब मुस्लिमों के लिए बनवाया था. या मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपना सबसे लंबा कलाम पवित्र शहर बनारस पर लिखा था. 



1947 के बंटवारे को लेकर मिथकों के मुद्दे को भी नक़वी अपने प्ले में छूते हैं- ऐसा अधिकतर लोग मानते हैं कि बंटवारे के वक्त पाकिस्तान से हिन्दू भारत आ गए और भारतीय मुस्लिम पाकिस्तान चले गए. ऐसा कुछ नहीं हुआ था. सिर्फ पंजाब और बंगाल का बंटवारा हुआ था. हिन्दू पंजाबी अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, दिल्ली, यूपी और अन्य कुछ हिस्सों में आ गए. वहीं ईस्ट पंजाब से मुस्लिम लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर चले गए. अन्य हिस्सों के मुस्लिम वहीं रहे जहां वो पहले से रहते आ रहे थे. बहुत ही सीमित संख्या में कराची के सेक्रेटेरिएट में गए या भेजे गए. 

1947 में भारत का विभाजन (विकिपीडिया)


सईद नकवी अपने इस सैटायर प्ले से चोट करते हैं कि फिरकापरस्ती या साम्प्रदायिकता को सियासत की सरपरस्ती हासिल है, वहीं जात-पांत सदियों से चली आ रही सामाजिक आदत है. देश की मौजूदा सियासत की बैकग्राउंड में कई अहम सवाल भी उठाते हैं- क्या मुस्लिमों की गैर मौजूदगी में भारत मज़बूत होगा? क्या सारी समस्याएं खत्म हो जाएगी? क्या होगा अगर जिस किरदार को लेकर सारा तामझाम किया जा रहा है, सारा नाटक रचा जा रहा है, अगर वही किरदार अचानक रंगमंच से गायब हो जाए

क्या मुसलमानों के गायब हो जाने से या पूरी तरह हाशिए पर चले जाने से उस आदर्शलोक का सपना पूरा हो जाएगा जो दिखाया जाता है. क्योंकि अब मुस्लिम चले गए हैं इसलिए नफरत के लिए कोई नहीं बचा है तो क्या वो आदर्शलोक बन जाएगा. लेकिन सईद नक़वी किताब से इशारा करते हैं कि चीजें फिर तेजी से दक्षिण की ओर मुड़ती है, और सत्तारूढ़ उच्च-जाति के अभिजात वर्ग को निचली जाति के बहुमत से खतरा महसूस होने लगता है जो अब ये जान गया है कि चुनावी रास्ते से सत्ता तक पहुंचा जा सकता है. नाटक में बताया गया है कि फिर उस स्थिति का मुकाबला करने के लिए ऊंची जातियां गायब हुए मुसलमानों को वापस लाने की कोशिश में जुट जाती हैं ताकि डेमोग्राफिक बदलाव को रोका जा सके जिससे उनकी पारम्परिक सत्ता को नुकसान हो रहा है. मामला अदालत तक पहुंचता है. एक विशेष जूरी बनाई जाती है जिसमें दक्षिण एशिया की प्राचीन काल की गंगा जमुनी तहज़ीब की पैरोकारी करने वाली कई अज़ीम शख्सीयत शामिल रहती हैं, अमीर खुसरो को इसका प्रवक्ता बनाया जाता है. 

अमीर ख़ुसरो


पिछले कई दशकों की नफ़रत, साथ में मीडिया की भूमिका, खुसरो की सलाह सहस्राब्दी के अनुभव वाली अपनी जूरी के माध्यम से टीवी और पत्रकारिता के माध्यम से क्रिएटिव प्रोगामिंग की सलाह देते हैं. ऐसी प्रोग्रामिंग जो बाज़ार पर ही केंद्रित नहीं है बल्कि जो लोकतंत्र, संविधान और परंपरा की ऐसी जगह का निरीक्षण कर ऐसा देश बनाने में मदद करे जिसे कोई भी नहीं छोड़ना चाहे. दुखद सच ये है कि इस पूरी विशेष अदालत के गठन की कवायद इसलिए की जाती है कि दलितों के हाथ में सत्ता न चली जाए.

मुस्लिम हमेशा के लिए चले जाते हैं या दोबारा वापस आ जाते हैं, कोर्ट के अंदर और बाहर क्या होता है, और कैसे नाटक अपने क्लाइमेक्स पर पहुंचता है, ये जानने के लिए आपको किताब पढ़नी पढ़ेगी- द मुस्लिम वैनिशेस, जो अब हिन्दी में भी कहां गए मुसलमान नाम से उपलब्ध है. किताब के अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद लाने की तैयारी है.

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